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कक्षा 10 लोकतांत्रिक राजनीति संघवाद दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ?- sanghavaad long type Q&A

  





                          दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ?


प्रश्न 1.भाषा के आधार पर भारत में राज्यों का गठन कैसे किया गया था? संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।


उत्तर—भारत के राज्यों और उनके तथाकथित राजकुमारों ने एक सम्मिलित दस्तावेज पर हस्ताक्षर करके भारत संघ में अपने राज्यों का विलय स्वीकार कर लिया किन्तु दो सौ से अधिक वर्ष तक अंग्रेजों की संगति और

इंग्लैंण्ड के कॉलेजों में शिक्षा प्राप्ति, इन दोनों कारणों ने उन्हें अंग्रेज नीति को । पुनर्जीवित करने के लिए व्याकुल कर दिया और संविधान में किसी तरह व्यवस्था न रहने के बाद भी 1952 ई. में एक राज्य आंध्र प्रदेश का पुनर्गठन कराने में सफलता प्राप्त की। संविधान के लिखित स्वरूप का यहीं से संशोधन प्रारंभ हुआ।

हमारा देश 1956 ई. (सातवाँ संशोधन अधिनियम) के 14 राज्यों और 6 संघ राज्य क्षेत्रों से खंडित होता हुआ आज 28 राज्य और 8 संघ क्षेत्रों (राजधानी क्षेत्र दिल्ली सहित) में टूट चुका है। वर्ष 14 जनवरी, 2019 तक हमारे संविधान में 103 संशोधन किए जा चुके हैं। 103वाँ संशोधन उच्च वर्ग  के गरीब लोगों को सरकारी नौकरी और शिक्षा केक्षेत्र में 10% आरक्षण का प्रावधान था।


70 वर्ष में 100 से अधिक संशोधन का तात्पर्य यह है कि प्रति वर्ष एकाधिक संशोधन किया जा रहा है। केवल भाषा ही नहीं बल्कि संस्कृति, भौगोलिक स्वरूप, दशाओं और जाति के आधार पर भी राज्यों के पुनर्गठन हो रहे हैं। आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश से पुनः नए राज्यों की माँग उठने लगी है। संभव है कि आने वाले वर्षों में चार नए राज्य और बन जाएँ। खंडित होती जा रही आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति की यह मनोदशा और हम सभी नागरिक आज भी राष्ट्रीय पर्व, जलसे या जलूस में अखंड भारत का राग अलापते नहीं अघाते। राष्ट्रीट


 प्रश्न 2. संघात्मक शासन प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ बताइए। 

अथवा संघवाद क्या है? इनकी प्रमुख विशेषताएँ बताइए। ( 2021 IN ) 

अथवा संघीय व्यवस्था क्या है? भारत की संघीय व्यवस्था की किन्हीं दो विशेषताओं का वर्णन कीजिए।


उत्तर- संघवाद-संघवाद सरकार का वह स्वरूप है जिसमें देश के भीतर सरकार के कम से कम दो स्तर मौजूद हैं- पहला केन्द्रीय स्तर पर और दूसरा स्थानीय या राज्य स्तर पर। भारत की स्थिति में संघवाद को स्थानीय, केन्द्रीय और राज्य सरकारों के मध्य अधिकारों के वितरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। संघीय शासन व्यवस्था में एक ही समय में एक से अधिक प्रकार की सरकारें किसी देश में शासन करें। सभी सरकार को अपने अधिकार संविधान से मिले हैं। इस व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—


1. दोहरी नागरिकता होना-संघात्मक शासन वाले देशों में दोहरी नागरिकता होती है। लोग अपने देश तथा अपने-अपने राज्यों के नागरिक होते हैं। केवल भारत में इकहरी नागरिकता है।

2. दोहरे उद्देश्य प्राप्त होना-संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं—देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे बढ़ावा देना तथा इसके साथ ही तय क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना।

3. सरकार का एक या अधिक स्तर का होना-यहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके पास राष्ट्रीय महत्त्व के विषय होते हैं तथा फिर राज्य या प्रांतों के स्तर पर सरकारें होती हैं जो राज्य के कामों का संचालन करती हैं।

4. सरकार का अधिकार क्षेत्र विस्तृत होना- अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और प्रशासन का उनका अपना-अपना अधिकार क्षेत्र होता है।

5. सुरक्षा प्रदान करने में सहायक - विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं। इसलिए संविधान सरकार में हर स्तर के अस्तित्व और प्राधिकार को गारंटी और सुरक्षा देता है।

6. मौलिक प्रावधानों को दोनों स्तरों की सरकार की सहमति से बदलना - संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं।

7. संविधान को व्याख्या करने का अधिकार-अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।

8. वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग दिन स्रोत निर्धारित हैं।



प्रश्न 3.भारत में केन्द्र-‍ द- राज्य सम्बन्धों में आये परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।

अथवाभारतीय संघ में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों का वर्णन कीजिए। (2020 OA) 


उत्तर-1947 ई. में देश की आजादी के बाद कई वर्षों तक केन्द्र व राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता रही, फलस्वरूप केन्द्र व राज्य में अच्छे संबंध बने रहे। व्यावहारिक रूप में राज्य सरकारों ने स्वायत्त संघीय इकाइयों के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया। जब केंद्र और राज्यों में अलग- अलग दलों की सरकारें रहीं तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की। केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी। यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल काम था।

1990 ई. के बाद केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव काफी कम होने लगा। देश के अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। जब किसी एक दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो प्रमुख राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों समेत अनेक पार्टियों से गठबंधन बनाकर सरकार बनानी पड़ी। केंद्र में गठबंधन सरकार की शुरुआत होने लगी। इससे सत्ता में साझेदारी और राज्य सरकारों की स्वायत्तता आदर करने की नई संस्कृति पनपी । इस प्रवृत्ति को सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े फैसले से भी बल मिला। इस फैसले के कारण राज्य सरकार को मनमाने ढंग से भंग करना केंद्र सरकार के लिए मुश्किल हो गया। इस प्रकार आज संघीय व्यवस्था के तहत सत्ता की साझेदारी संविधान लागू होने के तत्काल बाद वाले दौर की तुलना में ज्यादा प्रभावी है। अब केंद्र और राज्यों के संबंध सुधरने लगे हैं।


प्रश्न 4. भारत में पंचायतीराज व्यवस्था का विवेचन कीजिए।


उत्तर—ग्राम स्तर पर भारत में विद्यमान स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायतीराज के नाम से जाना जाता है। भारत में त्रिस्तरीय पंचायतीराज ढाँचा पाया जाता है। इसमें सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, फिर पंचायत समिति तथा सबसे ऊपर जिला परिषद् काम करती है। इनका विवरण इस प्रकार है—


1. ग्राम पंचायत-ग्राम स्तर पर प्रत्येक गाँव में एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद होती है जिसमें कई सदस्य तथा एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें पंच कहा जाता है। ग्राम पंचायत के अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहते हैं। इनका चुनाव गाँव में रहने वाले सभी वयस्क व्यक्ति करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फैसला लेनेवाली संस्था है। पंचायतों का काम ग्राम सभा की देख-रेख में चलता है। इसे ग्राम पंचायत का बजट पास करने और इसके काम-काज की समीक्षा के लिए साल में कम-से-कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।

2. पंचायत समिति - कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखंड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके से सभी पंचायत सदस्य करते हैं।

3. जिला परिषद्-किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद का गठन होता है। जिला परिषद् के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है। जिला परिषद् में उस जिले से लोकसभा और विधानसभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर की संस्थाओं के कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं। जिला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है।


प्रश्न 5. पंचायतीराज के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।


उत्तर—देश के स्थानीय प्रशासन में पंचायतीराज व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान है। निम्नलिखित तथ्यों से पंचायतीराज व्यवस्था के महत्त्व को रेखांकित किया जा सकता है-


1. प्रशासन की शिक्षा- भारत में लोकतंत्रात्मक सरकार की स्थापना की गई है। इस प्रकार की सरकार में प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की जिम्मेदारी सँभालने के लिए तैयार रहना चाहिए। पंचायतीराज गाँव के अशिक्षित व कम शिक्षा प्राप्त लोगों को प्रशासन की शिक्षा देने का सबसे अच्छा साधन है। पंचायतीराज द्वारा स्थापित स्थानीय स्वशासन शहरों की स्थानीय स्वशासन


संस्थाओं की अपेक्षा लोगों को प्रशासन की अधिक शिक्षा प्रदान करता है। जैसे कि नगरों की स्थानीय संस्थाएँ नियम बनाने का प्रशिक्षण तो लोगों को देती हैं, लेकिन न्याय करने का प्रशिक्षण उन संस्थाओं के सदस्यों को नहीं मिलता। पंचायती राज गाँव के लोगों को नियम बनाने, उन्हें लागू करने, विकास योजनाएँ बनाने तथा उन्हें लागू करने और न्याय करने का भी अवसर देता है। इस प्रकार पंचायतीराज द्वारा गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को प्रशासन की शिक्षा प्राप्त होती है।


2. स्थानीय समस्याओं का समाधान-किसी विशेष क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं का समाधान केंद्र अथवा राज्य सरकार द्वारा शीघ्रता एवं सुगमता से नहीं किया जा सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकार के अधिकारियों का गाँव के लोगों के साथ सीधा संपर्क नहीं होता। पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों का जनता के साथ सीधा संपर्क होता है। वे क्षेत्र की समस्याओं से भली-भाँति परिचित होते हैं। अतः इस सदस्यों द्वारा स्थानीय समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है।


3. कृषि का विकास व आर्थिक उन्नति - पंचायतीराज की स्थापना का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इसकी स्थापना के बाद से ग्रामों में कृषि का बहुत अधिक विकास हुआ है। उसका कारण यह है कि ग्राम पंचायतें, पंचायत समितियाँ व जिला परिषद् सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की सहायता से किसानों को अच्छे किस्म के बीज प्रदान करती रहती है व वैज्ञानिक कृषि तथा नवीनतम कृषि यंत्रों के बारे में जानकारी देती रहती है। परिणामस्वरूप कृषि की उपज बढ़ी है। कृषि की उपज बढ़ने से जहाँ एक ओर किसानों व गाँव के अन्य लोगों की आर्थिक व सामाजिक रूप से उन्नति हुई है, वहाँ दूसरी ओर देश अनाज के मामले में आत्म-निर्भर बन गया है। यह पंचायती राज का ही महत्त्व है।


4. अधिकारों और कर्त्तव्यों का ज्ञान- पंचायतीराज की स्थापना से गाँव का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को गाँव के प्रशासन के साथ संबंधित समझता है। आज के ग्रामीण को अपने कर्त्तव्यों के बारे में जानकारी है तथा वे अपने अधिकारों के बारे में पहले की अपेक्षा बहुत सचेत हैं। गाँव के निवासी अब ग्राम सभा की बैठकों में भाग लेकर ग्राम पंचायत आदि के चुनाव में दिलचस्पी लेते हैं और ग्राम पंचायतों द्वारा निश्चित 'करों' इत्यादि को देने से भी हिचकते नहीं हैं।

चुका


5. जनता का अपना शासन पंचायतीराज जनता का अपना राज होता है। इसकी स्थापना से भारत के गाँवों में लोगों का अपना शासन स्थापित हो है। गाँव का प्रत्येक वयस्क नागरिक ग्राम सभा का सदस्य है और ग्राम पंचायत के चुनाव में भाग लेता है। ग्राम पंचायत ग्राम के प्रशासन संबंधी, समाज कल्याण संबंधी, विकास संबंधी तथा न्याय संबंधी सब कार्य करती है। इस प्रकार गाँव का व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता बना हुआ है। भारत का नागरिक अब किसी के अधीन नहीं है और वह वास्तविक रूप में अपने ऊपर स्वयं शासन करता है और अपने शासन से अच्छा कोई शासन नहीं होता।


उपरोक्त के आधार पर स्पष्ट है कि पंचायतीराज लोगों में आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता की भावना पैदा करता है और उनकी स्थानीय मामलों में रुचि उत्पन्न करता है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में स्वतंत्रता तथा समानता की भावना उत्पन्न करता है। इससे ग्रामीण जीवन के विकास में बहुत सहायता मिलती है। लोगों को अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के बारे में जागरूक करके पंचायती राज लोकतंत्र को सफल बनाने में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 


प्रश्न 6.भारत में संघीय व्यवस्था कैसी है? इसके चार लक्षण बताइए। 

अथवा संघवाद क्या है? भारत के संघीय ढाँचे की चार विशेषताएँ बताइए।


उत्तर-संघवाद एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें शासन की शक्तियों का बँटवारा केन्द्रीय सरकार तथा प्रान्तीय सरकारों के बीच कर दिया जाता है। भारत में दो स्तरीय संघीय व्यवस्था है-संघ सरकार और राज्य सरकारें। भारतीय संघात्मक शासन की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-


1. केंद्रीकृत संघवाद - भारतीय संघात्मक शासन अन्य देशों के शासन से भिन्न है। भारत में दो प्रकार की सरकारें होते हुए भी केंद्र को शक्तिशाली

बनाया गया है। केंद्र को अधिक अधिकार दिए गए हैं। इसलिए भारतीय संघ को एकीकृत संघवाद कहा जाता है।


2. कठोर संविधान-हमारे संविधान में केन्द्र व राज्य के बीच सत्ता का बँटवारा लिखित रूप से किया गया है। इसमें परिवर्तन करना आसान नहीं है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करके कम- से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से उसे मंजूर कराया जाता है। इस प्रकार कठोर संविधान संघात्मक शासन की प्रमुख विशेषता है।


3. दो स्तरीय शासन व्यवस्था संविधान ने दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था - -संघ सरकार और राज्य सरकारें। बाद में पंचायतों और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का तीसरा स्तर भी जोड़ा गया।


4. शक्तियों का बँटवारा संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के विधायी अधिकारों को तीन हिस्सों में बाँटा गया। संघ सूची में राष्ट्रीय महत्त्व के विषय रखे गए जिन पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया। राज्य सूची में कम महत्त्व के विषय थे जिन पर राज्य सरकार कानून बना सकती है। समवर्ती सूची पर राज्य और केन्द्र दोनों कानून बना सकते हैं। किंतु टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून मान्य होगा।


5. एकीकृत न्यायपालिका- भारत में संघात्मक शासन के कारण केंद्र और राज्य सरकारों की अलग-अलग कार्यपालिका और व्यवस्थापिका है किंतु न्यायपालिका दोनों के लिए एक ही है। ऐसा इसलिए किया गया जिससे केंद्र व राज्यों के झगड़ों का निपटारा किया जा सके।


6. राज्यों के अपने संविधान नहीं हैं-भारतीय संघ के सारे राज्यों को बराबर अधिकार नहीं हैं। भारत के राज्यों के अपने संविधान नहीं हैं। केवल जम्मू-कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका अपना संविधान है। इस राज्य में विधानसभा की अनुमति के बगैर भारतीय संविधान के कई प्रावधान लागू नहीं किए जा सकते।


7. शक्तिशाली न्यायपालिका- संघात्मक शासन में न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। भारत में शक्तियों के बँटवारे से संबंधित कोई विवाद होने की स्थिति में फैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है।


8. वित्तीय स्वायत्तता -सरकार चलाने और अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने, राजस्व उगाहने और संसाधन जमा करने का अधिकार है। राज्य सरकारों को वित्तीय स्वायत्तता प्राप्त है। 


प्रश्न 7. ग्राम पंचायत के कार्यों का वर्णन कीजिए।


उत्तर- 73वें संवैधानिक संशोधन, 1992 के द्वारा ग्राम पंचायत के कार्यों का वर्णन संविधान की 11वीं अनुसूची में किया गया है। ग्राम पंचायतों के प्रमुख कार्यों का विवरण इस प्रकार है-

प्रशासनिक कार्य-


(क) ग्राम पंचायत ग्राम सभा द्वारा निर्धारित किए गए कार्यों को पूरा करेगी। (ख) ग्राम पंचायत क्षेत्र के विकास के लिए बजट तैयार करेगी और ग्राम सभा में इसे प्रस्तुत करेगी। यह गाँव के लिए विकास योजनाएँ भी तैयार करेगी।

कल्याणकारी कार्य-

ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना ग्राम पंचायतों का प्रमुख उद्देश्य है। इस स्थिति में ग्राम पंचायतों के निम्नलिखित कल्याणकारी कार्य निश्चित किए गए हैं-

1. बंजर भूमि, कृषि, बागवानी एवं चराई भूमि का विकास।

2.पुलों तथा पुलियों का निर्माण तथा मरम्मत करवाना।

3.कुएँ, तालाब आदि बनवाना तथा उनकी रक्षा करना।

 4. श्मशान भूमि तथा कब्रिस्तान की देखभाल करना ।

5.मेलों तथा मंडियों का आयोजन करना।

6.सार्वजनिक उद्यान, खेल के मैदान आदि का प्रबंध करना तथा सार्वजनिक मनोरंजन के लिए आयोजन करना।

7. पुस्तकालयों तथा वाचनालयों की स्थापना व देखभाल करना।

 8.महामारियों के विरुद्ध निवारणात्मक तथा औपचारिक उपाय करना । 

9.यात्रियों के ठहरने का प्रबंध करना।

10. पंचायत किसी पटवारी, संतरी, चौकीदार, टीका लगाने वाले, ओवरसीयर या गाँव से संबंधित किसी अन्य सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध शिकायत जिलाधीश को पहुँचा सकती है।

11. पशुपालन के क्षेत्र में पशु धन में सुधार, डेरी उद्योग, मुर्गी पालन आदि को प्रोत्साहन देना। इसके साथ ही मछली उत्पादन विकास भी

शामिल है।

12. ग्राम पंचायत का यह भी कार्य है कि वह सड़कों के दोनों ओर वृक्ष लगवाए और वन के विकास में सहयोग दे।

13. ग्रामीणों के लिए आवास की व्यवस्था करना तथा पीने के पानी के लिए कुओं, तालाबों आदि का निर्माण कराना।

14. ग्रामीण क्षेत्र में सफाई के लिए सड़कें और सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना तथा इसी प्रकार की अन्य व्यवस्थाएँ करना ।

15. सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में परिवार कल्याणकारी कार्यक्रम लागू

करना और बीमारियों की रोकथाम के लिए उपाय करना। इसी के साथ महिला, शिशु और विकलांगों के कल्याण के लिए भी कार्य

करना ।

न्याय संबंधी कार्य – पंजाब पंचायती राज अधिनियम, 1994 के अनुसार पंचायतों को निम्नलिखित न्याय-संबंधी कार्य सौंपे गए हैं—


यदि कोई व्यक्ति पंचायत के फौजदारी आदेशों का उल्लंघन करता है तो पंचायत को उस पर 100 रुपए तक जुर्माना करने का अधिकार है। यदि कोई व्यक्ति पंचायत के आदेशों का लगातार उल्लंघन करता है तो पंचायत उस पर 10 रुपए प्रतिदिन की दर से जुर्माना कर सकती है जो 1000 रुपए तक हो सकता है। पंचायत के इस निर्णय के विरुद्ध 'निदेशक पंचायत' के पास 30 दिन के अंदर अपील की जा सकती है, जिसका निर्णय अंतिम माना जाएगा।


प्रश्न 8. जिलापरिषद् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।


उत्तर—जिलापरिषद् के प्रमुख कार्यों का विवरण इस प्रकार है-

1.यह पंचायत समितियों की विकास योजनाओं को समस्त जिले की विकास योजनाओं के साथ समन्वित करने का प्रयत्न करती है।

2.यह जिले के ग्रामीण विकास के संबंध में सरकार को सुझाव दे सकती है।

3.सरकार किसी भी योजना को लागू करने का उत्तरदायित्व जिला- परिषद् को सौंप सकती है।

4.जिला परिषद् ग्रामीण जीवन को विकसित करने और उनके जीवन- को ऊँचा उठाने के लिए अनिवार्य कदम उठा सकती है। 

5.यह मूल रूप से अपने क्षेत्र में स्थित पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय पैदा करती है और जिले का सामूहिक विकास करने का प्रयत्न करती है।

6. जिलापरिषद् पंचायत समितियों के बजट का निरीक्षण करती है और उन पर अपनी स्वीकृति देती है।

7.यह पंचायत समितियों के कार्यों पर निगरानी रखती है, उन्हें परामर्श देती है और आवश्यक हो तो आदेश देती है, ताकि पंचायत समिति अपने कार्य ठीक प्रकार से कर सके।

8.यह दो या दो से अधिक पंचायत समितियों से संबंधित विकास योजनाएँ बनाती है और उन्हें कार्यान्वित करती है।


प्रश्न 9.विकेन्द्रीकरण क्या है? इसके लिए भारतीय संविधान में क्या व्यवस्था की गयी? किन्ही चार का उल्लेख कीजिए ।

अथवा भारत में राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच क्या थी? इसका स्वरूप क्या है?


उत्तर—जब केन्द्र और राज्य सरकार से शक्तियाँ लेकर स्थानीय सरकारों को

दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं। विकेंद्रीकरण के पीछे आधारभूत सोच यह है कि अनेक मुद्दों और समस्याओं का समाधान स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है। लोगों को अपने क्षेत्र की समस्याओं की अच्छी समझ होती है। विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता हमारे संविधान में भी स्वीकार की गयी। इसके बाद से गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की कई कोशिशें हुई हैं। सभी राज्यों में गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गयी थी। लेकिन इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में रखा गया था। इस स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास न तो अपना कोई अधिकार था न संसाधन। इस तरह प्रभावी ढंग से सत्ता का विकेन्द्रीकरण नाममात्र का हुआ था।


1. चुनाव कराना संवैधानिक बाध्यता बन गया - 1992 में वास्तविक विकेन्द्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को अधिक शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया। अब स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है।


2. महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होना-निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं। निकायों में कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।


3. राज्य चुनाव आयोग का गठन किया गया-प्रत्येक राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है। राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है। सत्ता में भागीदारी की प्रकृति प्रत्येक राज्य में पृथक्-पृथक् है।


4. गाँव में ग्राम पंचायत का निर्माण- ग्राम स्तर पर विद्यमान स्थानीय स्वशासन व्यवस्था को पंचायतीराज के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक गाँव में एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है। अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहा जाता है। इनका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फैसला लेने वाली संस्था है। पंचायतों का काम ग्राम सभा की देखरेख में चलता है। गाँव के सभी मतदाता इसके सदस्य होते हैं। इसे ग्राम-पंचायत का बजट पास करने और इसके कामकाज की समीक्षा के लिए साल में कम से कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।


5. पंचायत समिति का गठन होना-स्थानीय शासन का ढाँचा जिला स्तर तक का है। कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखण्ड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं। किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद् का गठन होता है। जिला परिषद के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है। जिला परिषद् में उस जिले से लोक सभा और विधान सभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर की संस्थाओं के कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं। जिला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है।


इस प्रकार स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती हैं। शहरों में नगरपालिका होती है। बड़े शहरों में नगर निगम का गठन होता है। नगरपालिका और नगर निगम, दोनों का कामकाज निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। नगर निगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं।


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